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लहसुन का अधिक सेवन पहुंचा सकता है सेहत को नुकसान, भूलकर भी न करें ये गलती

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अधिकतर घरों में लहसुन का उपयोग किया जाता है। यह न सिर्फ खाने का स्वाद बढ़ाता है, बल्कि इसके कई स्वास्थ्य लाभ भी हैं। लहसुन में मौजूद औषधीय गुणों की वजह से इसे ‘प्राकृतिक एंटीबायोटिक’ भी कहा जाता है। कई कई सारे गुण पाए जाते हैं, जो स्वास्थ्य को लाभ पहुंचाते हैं। कहा जाता है कि सालों पहले ग्रीस के ओलंपिक खिलाड़ी अपना प्रदर्शन बेहतर करने के लिए लहसुन का सेवन किया करते थे और अब तो दुनियाभर में इसे एक ‘रोगनाशक औषधि’ के रूप में माना जाता है। लहसुन के सेवन के कई तरीके हैं, कुछ लोग इसे कच्चा भी खाते हैं तो कुछ भूनकर या फिर सब्जियों में डालकर खाते हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं कि लहसुन का सेवन दिल के लिए बहुत ही फायदेमंद होता है। यह हार्ट अटैक या स्ट्रोक को जोखिम को कम करने में मदद करता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसका अधिक सेवन सेहत को नुकसान भी पहुंचा सकता है? आइए

लहसुन के सेवन से होने वाले नुकसान के बारे में जानने से पहले इसके कुछ फायदों के बारे में भी जान लेते हैं। इसे पाचन तंत्र के लिए सबसे फायदेमंद खाद्य पदार्थों में से एक माना जाता है। यह फंगल इंफेक्शन से लड़ने में मदद करता है और साथ ही शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता यानी इम्यूनिटी भी बढ़ाता है। गठिया के दर्द को कम करने और हाई बीपी (उच्च रक्तचाप) को नियंत्रित करने में भी लहसुन को उपयोगी माना जाता है।

लहसुन के साइड-इफेक्ट

विशेषज्ञ कहते हैं कि लहसुन के फायदे तो बहुत हैं, लेकिन साथ ही साथ इसके दुष्प्रभाव भी हैं। लहसुन के अधिक सेवन से ब्लोटिंग, पेट फूलना, गैस, पेट खराब, गंदी सांस और शरीर की गंध जैसी समस्याएं पैदा हो सकती हैं। अगर आप पाचन संबंधी समस्याओं से ग्रसित हैं, तो सावधानीपूर्वक ही लहसुन का उपयोग करें।

लहसुन के नुकसान

लहसुन का अधिक मात्रा में सेवन करने से शरीर के साथ-साथ मुंह से दुर्गंध आने की समस्या भी हो सकती है। विशेषज्ञ कहते हैं कि गर्भवती महिलाओं को लहसुन के पूरक या सप्लीमेंट्स का सेवन नहीं करना चाहिए।

हो सकती है एलर्जी की समस्या

चूंकि लहसुन में सल्फर मौजूद होता है, ऐसे में कई लोगों को इससे एलर्जी हो सकती है। इसलिए जिन लोगों को लहसुन के सेवन से एलर्जी जैसा महसूस हो या जो इससे एलर्जिक हों, उन्हें लहसुन का सेवन भूलकर भी नहीं करना चाहिए।

 

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केजीएमयू हिमैटोलॉजी विभाग के डॉक्टरों का दावा है कि अमेरिका के बाद एप्लास्टिक एनीमिया नाम की इस बीमारी का यह दुनियाभर में दूसरा मामला है।

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उत्तरप्रदेश की एक युवती में हार्मोन और खून संबंधित दुर्लभ बीमारी मिलने से डॉक्टर परेशान हैं। केजीएमयू हिमैटोलॉजी विभाग के डॉक्टरों का दावा है कि अमेरिका के बाद एप्लास्टिक एनीमिया नाम की इस बीमारी का यह दुनियाभर में दूसरा मामला है। यूपी की इस युवती में हार्मोन और खून संबंधित दुर्लभ राबर्टसोनियन ट्रांसलोकेशन जनित एप्लास्टिक एनीमिया बीमारी मिली है। डॉक्टरों के अनुसार चौंकाने वाली बात यह है कि इस युवती में जेनेटिक्स बीमारी राबर्टसोनियन ट्रांसलोकेशन की वजह से एप्लास्टिक एनीमिया हुआ। यह केस स्टडी जरनल ऑफ क्लीनिकल एंड डायग्नोस्टिक रिसर्च में प्रकाशित हुआ है। आइए जानते हैं आखिर क्या है अप्लास्टिक एनीमिया, इसके लक्षण और बचाव के उपाय।

क्या है अप्लास्टिक एनीमिया-

अप्लास्टिक एनीमिया एक दुर्लभ और गंभीर स्थिति है, जो किसी भी उम्र में हो सकती है। इस अवस्था में आपका बोन मैरो नए ब्लड सेल्स का निर्माण नहीं कर पाता है। इसे मायेलोडिस्प्लास्टिक सिंड्रोम भी कहा जाता है। इससे पीड़ित व्यक्ति को थकान अधिक महसूस होती है, संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है और अनियंत्रित रक्तस्राव होता है। अप्लास्टिक एनीमिया खून की कमी से जुड़ी बीमारी है जिसमें शरीर में रक्त कोशिकाओं का निर्माण कम हो जाता है। इस रोग के लक्षण एकाएक सामने नहीं आते हैं लेकिन अगर इस रोग को अधिक समय तक इग्‍नोर किया जाए तो इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं और व्यक्ति की मौत तक हो सकती है।

कुछ वैज्ञानिक के अनुसार ऑटोइम्युन रोग के कारण भी अप्लास्टिक एनीमिया विकार विकसित होने का जोखिम बना रहता है। ऐसा, इसलिए रोग प्रतिरोधक क्षमता बोन मेरो के भीतर स्टेम कोशिकाओं को क्षति पहुंचाने लगते है। कुछ लोगो में पुरानी बीमारी के इतिहास के होने की वजह से भी अप्लास्टिक एनीमिया के विकार का जोखिम बना रह सकता है।

कितने तरह का होता है अप्लास्टिक एनीमिया-

अप्लास्टिक एनीमिया किसी भी उम्र और लिंग को हो सकता है। लेकिन सबसे ज्यादा इस रोग का खतरा टीनेज और 20 वर्ष की उम्र में अधिक बना रहता है। बता दें,  पुरुषों और महिलाओं में इसका खतरा समान ही बना रहता है। अप्लास्टिक एनीमिया दो तरह के होते है-
-एक्वायर्ड अप्लास्टिक एनीमिया (Acquired Aplastic anemia)
-इन्हेरिटेड अप्लास्टिक एनीमिया (Inherent Aplastic anemia)

-एक्वायर्ड अप्लास्टिक एनीमिया-

शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली के कमजोर होने की वजह से यह स्थिति पैदा होती है। एक्वायर्ड अप्लास्टिक एनीमिया के मुख्य कारण ये हैं-
-एचआईवी वायरस का संक्रमण
-दवाओं का अधिक सेवन
-कीमोथेरेपी

-इन्हेरिटेड अप्लास्टिक एनीमिया-

इन्हेरिटेड अप्लास्टिक एनीमिया खराब जीन की वजह से होता है और यह बच्चों और यंग एडल्ट्स में ही देखा जाता है। इस तरह के एनीमिया से व्यक्ति को ल्यूकेमिया और अन्य तरह के कैंसर (Cancer) होने का खतरा अधिक बना रहता है।

अप्लास्टिक एनीमिया के कारण- (Causes of Aplastic anemia)

अप्लास्टिक एनीमिया रोग हड्डियों में मौजूद बोन मैरो के अंदर पाई जाने वाली स्टेम सेल को नुकसान पहुंचने की वजह से होता है। बोन मैरो,में मौजूद स्टेम सेल रक्त कोशिकाओं का निर्माण करती हैं, इनके क्षतिग्रस्त होने पर शरीर में लाल और सफ़ेद रक्त कोशिका व प्लेटलेट्स का निर्माण नही हो पाता। अप्लास्टिक एनीमिया रोग के प्रमुख कारण ये हैं-
-कीमोथेरेपी।
-कुछ खास दवाओं का अधिक उपयोग
-ऑटोइम्यून संबंधी समस्या
-वायरल इन्फेक्शन
-प्रेगनेंसी
-बेंजीन जैसे रसायनों की वजह से
-नॉनवायरल हेपेटाइटिस

अप्लास्टिक एनीमिया के लक्षण-

-सांस संबंधी समस्या
-थकान
-धड़कन का अचानक बढ़ जाना
-त्वचा का पीला पड़ना
-लंबे समय तक इन्फेक्शन का रहना
-नाक और मसूड़ों से खून आना
-किसी भी चोट की जगह पर लंबे समय तक खून का बहना
-शरीर पर लाल रंग के चकत्तों का पड़ना
-सिर चकराना
-सरदर्द
-बुखार
-छाती में दर्द

 

कैसे की जाती है अप्लास्टिक एनीमिया रोग की जांच-   

अप्लास्टिक एनीमिया का पता लगाने के लिए CBC यानी कम्प्लीट ब्लड काउंट के टेस्ट का विकल्प चुना जाता है। इसके अलावा बोन मैरो बायोप्सी भी अप्लास्टिक एनीमिया का पता लगाने का एक खास तरीका है।

अप्लास्टिक एनेमिया का इलाज- 

अप्लास्टिक एनीमिया रोग के लक्षण दिखने पर डॉक्टर इसकी पहचान के लिए कई तरह के टेस्ट करते हैं। अगर यह बीमारी किसी को गंभीर रूप से है तो उसका इलाज बोन मैरो या स्टेम सेल ट्रांसप्लांट के जरिए होता है। बीमारी की स्थिति गंभीर नही होने पर चिकित्सक दवाइयों के सहारे इसका इलाज करते हैं। शरीर को इन्फेक्शन से बचाने के लिए एंटीबायोटिक्स और एंटी-फंगल दवाएं भी दी जाती हैं। अप्लास्टिक एनीमिया का पता लगाने के लिए खून की जांच और बोन मैरो टेस्ट किया जाता है।

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आज सैनिटरी पैड्स और पीरियड्स पर बातें होने लगी हैं, अब सवाल ये उठता है कि इसे डिस्पोज करने का सही तरीका क्या है?

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सेमिनार, वर्कशॉप और शॉर्ट फिल्म्स की देन है कि आज सैनिटरी पैड्स और पीरियड्स पर बातें होने लगी हैं। फिर भी भारत में आज महिलाओं, टीन-एजर्स का एक बड़ा तबका ऐसा है, जो इस पर बात करने से कतराता है। इसे खरीदने से लेकर डिस्पोज करने तक में उनकी हिचक अक्सर दिख जाती है।

इस पर बात करने वाली लड़कियों को फूहड़ और बेशर्म कहा जाता है। ऐसे में सोचिए, जब मेंसट्रूअल प्रॉब्लम्स पर बात करने में इतनी हिचकिचाहट होती है, तो इसमें इस्तेमाल किए गए गंदे, बदबूदार नैपकिन्स को डिस्पोज करने की बात लोगों को कितनी गैर-जरूरी लगती होगी! इस गंभीर विषय पर बात करने के लिए आज हमारे साथ जुड़ी हैं डॉ. श्रद्धा सुमन, जो बताएंगी सैनिटरी पैड्स को डिस्पोज करते हुए हमें किन बातों का ख्याल रखना चाहिए।

मेंसट्रूअल कप्स का बाजार हर दिन बढ़ता जा रहा है, जो कि सिलिकन से बना होने के साथ-साथ रिसाइक्लेबल भी होता है। इसके साथ ही टैम्पोन के विकल्प भी बाजार में मौजूद हैं, फिर भी कई महिलाएं इसके इस्तेमाल को लेकर श्योर नहीं होती हैं। उन्हें सैनिटरी पैड्स की बजाय कप्स का इस्तेमाल में असहजता महसूस होती है। एक ओर जहां प्लास्टिक वेस्ट को कम करने की बात उठ रही है, वहीं दूसरी ओर पैड्स को गलत तरीके से डिस्पोज करने की वजह से ये कचरा लगातार बढ़ता जा रहा है।

अब सवाल ये उठता है कि इसे डिस्पोज करने का सही तरीका क्या है? क्योंकि हम में से ज्यादातर महिलाओं ने इसे इस्तेमाल करना तो सीख लिया है, लेकिन इसे डिस्पोज करने का सही प्रक्रिया हमारी जानकारी से कोसों दूर है।

क्या होता है इस्तेमाल किए गए सैनिटरी पैड्स का?

नैपकिन्स की ऊपरी लेयर पॉलीप्रोपोलीन से बनी होती है। जबकि ब्लड सोखने के लिए इसमें वुड पल्प को सुपर एबसोर्बेंट पॉलीमर्स के साथ मिलाया जाता है, जिससे पैड लीक प्रूफ बना रहे। जिन कूड़े के ढेर में हम पैड्स डिस्पोज करते हैं, उन्हें एक एक जगह इक्कठा करके बायोडिग्रेडेबल और नॉन बायोडिग्रेडेबल वेस्ट के तौर पर अलग किया जाता है। आप जानकर हैरान रह सकती हैं कि ये करने का काम किसी मशीन का नहीं, बल्कि आपके-हमारे जैसा इंसान का होता है। इस काम को करते हुए कई बार वे संक्रमण और गम्भीर बिमारियों के शिकार हो सकते हैं।

डॉ श्रद्धा सुमन कहती हैं कि भारत एक बड़ी आबादी वाला देश है, जहां कूड़ा डिस्पोज करने के सही तरीके से ज्यादातर लोग अनजान हैं, कूड़ा शहर से बाहर कहीं दूर लैंडफिल्स में डंप कर दिया जाता है । अब भी 20 से 30% लैंडफिल्स में इसी तरह का कचरा होता है, जो हमारे मेंसट्रूअल पीरियड्स में इस्तेमाल होता है।

पैड डिस्पोजिंग का ये तरीका पहुंचाता है प्रकृति को नुकसान

पैड को जलाने से बचें। इसमें मौजूद प्लास्टिक हवा में ज्यादा से ज्यादा कार्बन फूट-प्रिंट जेनेरेट करता है।

लोग इसे न्यूज पेपर में लपेट कर फेंकते हैं। पेपर में मौजूद लीड की वजह से सॉइल पॉल्युशन बढ़ता है।

क्या है डिस्पोजिंग का सही तरीका?

अगर हम अपने घरों में ही पैड्स को गीले कचरे के डब्बे में डाल दें, तो वो री-सायकल हो सकता है।

पैड डिस्पोज करते समय सफेद कागज या टिश्यू का इस्तेमाल करें। यूज किए हुए पैड को इसमें अच्छी तरह लपेटकर लाल पेन या मार्कर से क्रॉस का निशान बना दें, जिससे पता चल सके कि इसमें यूज्ड पैड है।

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प्रेग्नेंसी में बिना डॉक्टरी सलाह के पैरासिटामॉल लेने से बचें। 91 वैज्ञानिकों के एक ग्रुप ने अपनी रिसर्च में गर्भवती महिलाओं को अलर्ट किया

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प्रेग्नेंसी में बिना डॉक्टरी सलाह के पैरासिटामॉल लेने से बचें। यह कोख में पल रहे बच्चे पर बुरा असर डाल सकती है। 91 वैज्ञानिकों के एक ग्रुप ने अपनी रिसर्च में गर्भवती महिलाओं को अलर्ट किया है।

इससे पहले हुई रिसर्च में भी यह सामने आया है कि ऐसी माओं के बच्चों में ऑटिज्म, हायपर एक्टिविटी डिसऑर्डर, लड़कियों में भाषा का धीरे सीख पाना और आईक्यू लेवल कम होने के बीच कनेक्शन मिला है।

अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की टीम ने पैरासिटामॉल और प्रेग्नेंसी से जुड़े अध्ययनों का रिव्यू किया। इसमें सामने आया कि प्रेग्नेंट महिलाओं को डॉक्टर के कहने पर ही पेनकिलर पैरासिटामॉल लेनी चाहिए, वरना होने वाले बच्चे पर कई तरह से बुरा असर पड़ सकता है।

प्रेग्नेंसी में दवा के असर को दो तरह से जांचा
नेचर रिव्यू एंडोक्राइनोलॉजी जर्नल में पब्लिश रिसर्च कहती है, ब्रेन, प्रजनन और मूत्र से जुड़ी बीमारियों से पैरासिटामॉल का कनेक्शन मिला है। इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं की टीम ने 1995 से 2020 में बीच हुई पैरासिटामॉल और प्रेग्नेंसी से जुड़ी रिसर्च की एनालिसिस की।

रिसर्च करने वाले कोपेनहेगन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता डॉ. डेविड क्रिस्टेंसन ने प्रेग्नेंसी के दौरान पैरासिटामॉल के असर को दो तरह से जांचा। पहला, प्रेग्नेंट जानवरों पर और दूसरा गर्भवती महिलाओं पर।

नतीजे परेशान करने वाले हैं

शोधकर्ताओं का कहना है, ऐसी मांओं के बच्चों का समय से पहले जवान होना, स्पर्मकाउंट का घटना, प्रजनन क्षमता में कमी आने जैसे मामले देखे गए हैं।

वहीं, जब जानवरों पर इसका असर देखा गया तो सामने आया कि मादा जानवरों में अंडों की संख्या घट गई और प्रजनन की क्षमता कम हो गई।

जर्नल में पब्लिश रिपोर्ट कहती है, दुनियाभर में पैरासिटामॉल का बढ़ता इस्तेमाल परेशान करने वाला है। यह बच्चों की सोचने-समझने व सीखने क्षमता और उनके बिहेवियर पर असर डाल रही है। इतना ही नहीं, ऐसे पेनकिलर्स और टेस्टिकुलर कैंसर के बीच भी कनेक्शन मिला है।

… लेकिन NHS ने कभी नहीं दी ऐसी सलाह
हालांकि ब्रिटिश हेल्थ एजेंसी NHS इससे इत्तेफाक नहीं रखती। NHS का कहना है, प्रेग्नेंसी के लिए भी पैरासिटामॉल एक सुरक्षित दवा है। जो महिलाएं मां बनने वाली हैं उनके लिए यह पेनकिलर पहली चॉइस होती है। यूके में करीब 50 फीसदी गर्भवती महिलाएं प्रेग्नेंसी में पैरासिटामॉल का इस्तेमाल करती हैं। वहीं, अमेरिका में यह आंकड़ा 65 फीसदी तक है।

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